धिक्कार-2 मुंशी प्रेम चंद
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रविवार का दिन था। संध्या समय इंद्रनाथ दो-तीन मित्रों के साथ अपने घर की छत पर बैठा हुआ था। आपस में हास-परिहास हो रहा था। मानी का आगमन इस परिहास का विषय था।
एक मित्र बोले- क्यों इंद्र, तुमने तो वैवाहिक जीवन का कुछ अनुभव किया है, हमें क्या सलाह देते हो? बनायें कहीं घोसला, या यों ही डालियों पर बैठे-बैठे दिन काटें? पत्र-पत्रिकाओं को देखकर तो यही मालूम होता है कि वैवाहिक जीवन और नरक में कुछ थोड़ा ही-सा अंतर है ।
इंद्रनाथ ने मुस्कराकर कहा- यह तो तकदीर का खेल है, भाई, सोलहों आना तकदीर का। अगर एक दशा में वैवाहिक जीवन नरकतुल्य है, तो दूसरी दशा में स्वर्ग से कम नहीं ।
दूसरे मित्र बोले- इतनी आज़ादी तो भला क्या रहेगी?
इंद्रनाथ- इतनी क्या, इसका शतांश भी न रहेगी। अगर तुम रोज सिनेमा देखकर बारह बजे लौटना चाहते हो, नौ बजे सोकर उठना चाहते हो और दफ़्तर से चार बजे लौटकर ताश खेलना चाहते हो, तो तुम्हें विवाह करने से कोई सुख न होगा। और जो हर महीने सूट बनवाते हो, तब शायद साल-भर में भी न बनवा सको।
‘श्रीमतीजी, तो आज रात की गाड़ी से आ रही हैं?’
‘हाँ, मेल से। मेरे साथ चलकर उन्हें रिसीव करोगे न?’
‘यह भी पूछने की बात है ! अब घर कौन जाता है, मगर कल दावत खिलानी पड़ेगी।‘
सहसा तार के चपरासी ने आकर इंद्रनाथ के हाथ में तार का लिफाफा रख दिया।
इंद्रनाथ का चेहरा खिल उठा। झट तार खोलकर पढ़ने लगा। एक बार पढ़ते ही उसका हृदय धक हो गया, साँस रूक गयी, सिर घूमने लगा। आँखों की रोशनी लुप्त हो गयी, जैसे विश्व पर काला परदा पड़ गया हो। उसने तार को मित्रों के सामने फेंक दिया ओर दोनों हाथों से मुँह ढाँपकर फूट-फूटकर रोने लगा। दोनों मित्रों ने घबड़ाकर तार उठा लिया और उसे पढ़ते ही हतबुद्धि-से हो दीवार की ओर ताकने लगे। क्या सोच रहे थे और क्या हो गया !
तार में लिखा था- मानी गाड़ी से कूद पड़ी। उसकी लाश लालपुर से तीन मील पर पायी गयी। मैं लालपुर में हूँ, तुरंत आओ।
एक मित्र ने कहा- किसी शत्रु ने झूठी खबर न भेज दी हो?
दूसरे मित्र बोले- हाँ, कभी-कभी लोग ऐसी शरारतें करते हैं।
इंद्रनाथ ने शून्य नेत्रों से उनकी ओर देखा, पर मुँह से कुछ बोले नहीं।
कई मिनट तीनों आदमी निर्वाक् निस्पंद बैठे रहे। एकाएक इंद्रनाथ खड़े हो गये और बोले- मैं इस गाड़ी से जाऊँगा।
बंबई से नौ बजे रात को गाड़ी छूटती थी। दोनों मित्रों ने चटपट बिस्तर आदि बांधकर तैयार कर दिया। एक ने बिस्तर उठाया, दूसरे ने ट्रंक। इंद्रनाथ ने चटपट कपड़े पहने और स्टेशन चले। निराशा आगे थी, आशा रोती हुई पीछे।